बूढ़ी दिवाली क्यों मनाई जाती है, इसके पीछे मान्यता है कि भगवान राम कार्तिक अमावस के दिन वनवास काट कर अयोध्या पहुंचे थे। अयोध्या वासियों नें राम, सीता और लक्ष्मण का भव्य स्वागत किया। रात को पूरी नगरी में दीये जलाये गये। इस दिन पूरे भारतवर्ष सहित विश्व में दिवाली मनाई जाती है। लेकिन संचार के साधन न होने के कारण तब भारतवर्ष के इन उत्तर पश्चिमी पहाड़ों तक भगवान राम के अयोध्या पहुंचने के समाचार को पहुंचने में एक चन्द्र मास लग गया। जिस दिन यह सुखद समाचार पहाड़ों तक पहुंचा उस दिन मार्गशीष अमावस थी। इन पहाड़ों में लोगों नें मशालें जलाकर उस रात रोशनी की और उसी दिन को दीवाली मान लिया। अयोध्या में जिस दिन रामचंद्र आये उस दिन दीवाली हुई और इन पहाड़ों में जिस दिन उन के आने की खबर मिली उस दिन बूढ़ी दीवाली हुई। जिस समाचार की त्वरित पहुंचने की अपेक्षा रही होगी वह जैसे यहां तक का रास्ता तय करते-करते बुढ़ा गया। कदाचित् इसीलिए इसे पहाड़ी में ‘बुड्डी दैवड़ि’ अर्थात बूढ़ी दीवाली कहा जाने लगा। परम्परा अनुसार इन पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी, मार्गशीष अमावस को बूढ़ी दिवाली मनाये जाने का प्रचलन है। इस रात लोग मशालें उठा कर “दैवड़ि आ हो दैवड़ि आ।” का उदघोष करते हैं। पहाड़ों में त्योहार देवी देवताओं की छत्र छाया में मनाये जाते हैं। कालांतर में स्थानीय देवताओं को भी इस प्रकाश महोत्सव में शरीक कर लिया गया।मैलन कोटगढ़ में, देवता चतुर्मुख के प्रांगण में, इस रात बड़ी धूम धाम से प्रकाश का यह त्यौहार मनाया जाता है। कई अन्य स्थानों में भी बूढ़ी दिवाली का आयोजन किया जाता है।